प्रभु संवाद: प्रधानमंत्री, सेंगोल और कर्तव्य!

शहर के प्रमुख बिल्डर जे एस फौजदार, व्यापार में आने से पहले प्रबुद्ध शिक्षक भी रहे हैं। शिक्षक से बिजनेसमैन बनने के दौरान भी सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर उनका चिंतन, मनन निरंतर जारी है। कई बार वे कई गंभीर और गूढ़ विषयों पर अपनी बेबाक नजरिया रखते रहे हैं। इस बार उन्होंने प्रभु राम से संवाद की विशिष्ट शैली में देश के राजनीतिज्ञों और विशेषकर प्रधानमंत्री को नसीहत देने की कोशिश की है। 
यहां प्रस्तुत है उनका..... "प्रभु संवाद"

सामाजिक विकृतियाँ व दूषित वातावरण से प्रभावित असहनीय परिस्थिति को देखते हुए भगवान राम से प्रश्न किया:-
प्रभु राम जी, क्या आपने सभी मर्यादाओं का पालन करके अपने प्यारे देशवासियों को मर्यादाओं के पालन से मुक्त कर दिया था?
प्रभु राम ने गहन चिंतन के बाद ठंडी सांस लेकर देशवासियों को आशीर्वाद व शुभकामनाओं के साथ कहा कि मैंने मर्यादाओं का पालन एक उदाहरण के बतौर किया था, परन्तु आप लोगों ने तो मर्यादाओं की परिभाषा ही बदल दी। मर्यादाओं का निर्धारण प्रकृति के नियमों के अनुसार होता है, किसी जीव की क्षमता नहीं है कि वह प्राकृतिक नियमों की अवहेलना करके एक नयी रचना से संसार को चलाने की नाकाम चेष्टा करें। प्रकृति का मुख्य नियम "संतुलन" रखना ही जीवन को मर्यादित रखने का आधार है। संतुलन तभी सम्भव है जब देने और लेने की प्रक्रिया में सामंजस्य होगा, लेकिन प्रकृति ने एक पाबन्दी लगा दी कि "देना" तो किसी भी जीव की अपनी क्षमता होगी परन्तु "लेने" में दूसरे पर निर्भर रहना पड़ेगा अतः जीव को सिर्फ "देने" का अधिकार है। "लेने वाला" या देने की प्रक्रिया से प्रभावित होने वाला तो कोई न कोई होगा ही जो स्वतः संतुलन चक्र को पूरा करेगा। प्रकृति ने इस "देने" की भावना को भी प्रतिबन्धित किया है कि ऐसा न सोचे कि इस "देने" के बदले हमें अमुक वस्तु प्राप्त हो जाएगी। बल्कि इसे एक कर्त्तव्य की भावना से करे और यही एक निष्काम भावना की परिभाषा होगी।
जब हर जीव ये सोचेगा कि अमुक काम मैं इसलिए करूँगा कि इसके बदले में मुझे वो मिलेगा तो देखने, सुनने में तो यह बिल्कुल सहज लगता है... परन्तु इस भावना से हम प्रकृति को बाध्य करने की नाकाम कोशिश करते हैं कि वह अपने नियमो में परिवर्तन करे।
ध्यान रहे हम जैसे ही प्रकृति के नियमों की अवहेलना करते हैं, प्रकृति हमें विपरीत फल देने के लिए समस्याओं के रूप में हमारे विचारों को विकृत करते हुए सामाजिक संरचना को अव्यवस्थित कर देती है।
अतः मर्यादाओं के पालन करने के लिए, "जीवन के हर क्षेत्र में कर्तव्यों का पालन उसकी सही परिभाषा के साथ करें और सही और गलत का निर्णय सिर्फ एक ही है कि देने और लेने की क्रिया से प्राकृतिक संतुलन न बिगड़े।
मर्यादाओं के साथ-साथ प्रभु रामजी ने बताया कि सही काम करने के तीन कारक होते हैं।
1. Fear of punishment (दंड का डर)
2. Attraction of award (कुछ प्राप्त होने का लोभ या फायदा)
3. Feeling of performing his duty जिसे work culture भी कहते हैं जिसमें सही कार्य करने को अपना कर्त्तव्य समझा जाता है। कहते भी हैं कि Fear Motivation is only effective system to impliment a thing properly.
रामजी ने बताया कि किस प्रकार संसार को सुचारु रूप से चलने के लिए हमने अपनी अपनी जिम्मेदारियां बाँट ली हैं। उत्पत्ति का काम श्री ब्रह्मा जी, पालन पोषण स्वयं मैं विष्णु भगवान के रूप में व उत्पत्ति से असंतुलन न हो इसके लिए भगवान शिव संतुलन रखने का दायित्व सम्भालते हैं।
प्रकृति के पांच तत्वों में पृथ्वी व आकाश उत्पत्तिकारक व जल, अग्नि व वायु पोषक तत्व हैं। पृथ्वी व आकाश से सम्बन्धित विभाग श्री ब्रह्माजी के अधीन, पोषक मंत्रालय में इन्द्र, वरुन व सूर्य आदि देवता विष्णु जी के अधीन व भगवान शिव के अधीनस्थ, शनि न्याय का काम व दंड देकर विनाश का काम यमराज करते हैं। क्योंकि संतुलन के लिए दंड से डराना आवश्यक है परन्तु दंड देने की प्रक्रिया में पक्षपात या अनाचार न हो जाये अतः न्याय की जानकारी के साथ न्याय संगत कार्यवाही आवश्यक है जिससे सत्य की हानि न हो।
हमने जो प्राकृतिक नियमों का एक उदाहरण सांसारिक जीवों के सामने रखा जिनका अनुसरण करके सामाजिक सिस्टम को सुचारु रूप से चला सकते हैं। इस प्रकार जो सबसे उच्च पद पर होता है जिसे राजा कहते हैं, उसको पालन-पोषण की जिम्मेदारी के साथ-साथ न्याय करने व दंड देने का एक अधिकार भी दिया जाता है। इस अधिकार के प्रतीक रूप में एक रत्नजड़ित दंड व ध्वज, किसी राजा के राज्याभिषेक के समय उसे प्रदान किया जाता था जिसे राजदंड या धर्म दंड और आजकल जिसे "सेंगोल" कहते हैं। हम देवताओं के विधान में भी ये भगवान शिव के पास त्रिशूल के रूप में विद्यमान था।
इस समय चूँकि देश में राजतन्त्र न होकर लोकतंत्र है जिसमें प्रजा का शासन, प्रजा के लिए, प्रजा द्वारा चलाया जाता है, अतः राजा प्रजा होती है। प्रजा अपने अधिकार अपने प्रतिनिधि के द्वारा, एक मुख्य प्रतिनिधि, जिसे प्रधानमंत्री कहा जाता है, को समर्पित कर देती है अतः लोकतंत्र में न्याय व दंड और अन्य क्रियाकलाप का दायित्व, अधिकार प्रधानमंत्री का होने के नाते, सेंगोल को ग्रहण करने का अधिकार भी है। प्रभु ने कहा, मैंने अपने समय से ही राजतन्त्र होते हुए भी लोकतान्त्रिक पद्धति का अनुसरण करते हुए विभिन्न विभागों का ज़िम्मेदारियों के अनुसार वर्गीकरण कर दिया था जिसे आजकल विधायिका, कार्य पालिका व न्याय पालिका का नाम दिया गया है। सही समय पर सभी घटनाओं, परम्पराओं व विचारों की जानकारी होती रहे, इसकी ज़िम्मेदारी महर्षि नारद जी को दी गयी थी जिसे आजकल प्रेस कहा जाता है। 
भगवान राम ने सावधान भी किया कि हम तीनों (ब्रह्मा, विष्णु व शंकर जी) के अंदर छोटे-बड़े की भावना नहीं थी। तीनों ही एक-दूसरे का सम्मान करते थे। एक-दूसरे से राय-मशविरा लेने के बाद किसी जटिल समस्या का निराकरण करते थे। अगर हमारे विचार व कार्य पद्धति के बारे में किसी ने पुनः विचार व पुनरुत्थान के बारे में कहा तो हमें बुरा नहीं लगता था वरन हम "निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय" का अनुसरण करते थे।
अतः प्रधानमंत्री को ध्यान रहे कि वो सेंगोल को धारण करने का सही अधिकार तभी रखते हैं, जब वह अपने को सर्वश्रेष्ठ न समझकर, बराबर का अधिकार मानते हुए मिलकर कार्य करें।
भगवान राम ने भारत में बनने वाली संसद भवन के उदघाटन से सम्बंधित भ्रान्ति का भी निराकरण किया। उन्होंने बताया कि संसद भवन का उपयोग संवाद के लिए किया जाता है। चूँकि प्रकृति के अलावा कोई भी absolute नहीं है अतः क्या सही है, क्या गलत है इसका निर्णय संवाद के द्वारा ही संभव है। लोकतंत्र का मुख्य आधार "to come to conclusion through difference" ही है। इसके लिए इस भवन का लोकार्पण कोई भी करे, उसके अंदर सहनशीलता, संवेदनशीलता, having no discrimination, निःस्वार्थ व निष्पक्ष भावना व सामूहिक रूप से कार्य योजना व क्रिया करने वाला होना चाहिए।
भगवान राम के बताये हुए नियम व परम्पराओं के अनुसरण से ही देश में शांति, सौहार्द्र व सफल लोकतंत्र की स्थापना हो सकती है।
-जे एस फौजदार।


ख़बर शेयर करें :

Post a Comment

0 Comments